top of page

 मेरे  मार्गदर्शक  प्रशिक्षक 

asd_edited.png

पूज्य  श्री  राघवेंद्र  राव  (  आप्पा  )  रायचूर  कर्नाटक

पूज्य  श्री  राघवेंद्र  राव,  जिन्हें  प्यार  से  अप्पा  के  नाम  से  जाना  जाता  था,  का  जन्म  १९  मार्च  १९२५  को  आंध्रप्रदेश  के  नारायणपेट  के  पातापल्ली  में  हुआ  था ।  उनके  पिता  का  नाम  श्री  किशनराव  और  माता  का  नाम  श्रीमती  वेंकम्मा  था ।  उन्होंने  अपनी  भानजी  श्रीमती  द्रौपदी  बाई  से  शादी  की  और  उनके  तीन  बेटे  और  चार  बेटियां  हैं ।

उन्होंने  विज्ञान  में  स्नातक  और  मैकेनिकल  इंजीनियरिंग  में  स्नातक  की  उपाधि  प्राप्त  की  और  लेक्चरर  के  रूप  में  बीदर  गवर्नमेंट  पॉलिटेक्निक  कॉलेज  में  नौकरी  शुरु  की ।  उन्होंने  कर्नाटक  राज्य  में  विभिन्न  स्थानों,  जैसे  बल्लारी,  गुलबर्गा  और  हासन  में  सेवा  की ।  उन्होंने  राजकीय  पॉलिटेक्निक,  रायचूर  के  प्रधानाचार्य  के  रूप  में  भी  काम  किया  और  अंतिम  वर्ष  १९८०  में  उप  निदेशक  ( तकनीकी  शिक्षा ),  बैंगलोर  के  रूप  में  सेवानिवृत्त  हुए ।

एक  विनम्र  साधक,  श्री  राघवेंद्र  राव,  २२  अक्टूबर  १९५५  को  शाहजहाँपुर  में  समर्थ  सद्गुरु  श्री  रामचंद्रजी  महाराज  से  उनके  आवास  पर  मिले  ।

पहली  मुलाकात  शाश्वत  प्रेम  के  रूप  में  उभरी  और  साधक  की  आत्मा  को  गुरु  महाराज  ने  अपने  ही  ( गुरु  के )  रूप  में  बदल  दिया।  गुरु  महाराज  ने  श्री  राघवेंद्र  राव  को  शाहजहाँपुर  की  यात्रा  के  बाद  अपने  पहले  पत्र  में  लिखा  कि,  "बहुत  से  लोग  मुझे  देखने  आते  हैं  लेकिन  मुझे  देखे  बिना  चले  जाते  हैं  लेकिन  आप  मुझे  अपने  साथ  ले  गए  हैं ।"

उन्होंने  हरेक  को  जताया  कि  'सहज  मार्ग'  ही  वास्तविक  अस्तित्व  बनने  का  एकमात्र  अचूक  साधन  है  और  यही  एकमात्र  लक्ष्य  है  जिसे  पाने  की  कोशिश  करनी  चाहिए ।  उन्होंने  सहज  मार्ग  दर्शन  पर  कई  पुस्तकें  लिखीं  जैसे  Panoramic  View  of  Sahaj  Marg,  Call  of  the  Fellow  Traveller  आदि ।  उन्होंने  दूर  दूर  तक  यात्रा  की,  देश-विदेश  में  सत्संग  में  भाग  लिया  और  अभ्यासियों  का  मार्गदर्शन  किया ।

उनके  ८१वें  जन्मदिवस  पर  १९  मार्च  २००६  को  रायचूर  आश्रम  में  उनकी व्यक्तिगत उपस्थिति में  सत्संग  हुआ  था ।  दि. ८-९ अप्रैल  २००६  को  उनके  कहने  पर  वाराणसी  में  सत्संग  आयोजित  किया  गया  था ।  जिसे  उन्होंने  रायचुर  से  ही  क्रियान्वित  किया  था ।  और  फिर  उन्होंने  १०  अप्रैल  २००६  की  सवेरे  रायचूर  स्थित  अपने  आवास  पर  अपना  पार्थिव  शरीर  छोड़  दिया ।

वह  पद्धति,  प्रक्रिया  और  अभ्यास  के  सार  का  ज्वलंत  रुप  बन  गये  और  पद्धति  और  गुरु  महाराज  की  प्रभावशीलता  को  साबित  किया ।  अपने  जीवन  के  अंतिम  श्वास  तक  श्री  राघवेंद्र  राव  नामक  महान  आत्मा,  सच्चे  साधक  और  गुरु  महाराज  के  शिष्य  बने  रहे  ।  सद्गुरु  के  साथ  उनका  यह  सम्बन्ध  दिव्य  लोक  में  भी  बना  रहा  ।

bottom of page